नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट
द्वारा हाल ही में दिए गए एक ऐतिहासिक फैसले ने केंद्र और राज्यों के बीच संवैधानिक
शक्तियों की बहस को एक नई दिशा दे दी है। 8 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया
कि राज्यपाल किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोक नहीं सकते। इस फैसले के बाद राष्ट्रपति
द्रौपदी मुर्मू ने इस पर गंभीर प्रतिक्रिया दी और सुप्रीम कोर्ट से सीधे 14 संवैधानिक
सवाल पूछे हैं, जिनका संबंध राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों से है।
यह विवाद तब शुरू हुआ जब तमिलनाडु के
राज्यपाल ने राज्य सरकार द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी नहीं दी और उन्हें रोककर
रखा। मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल को कोई भी विधेयक
अनिश्चितकाल तक लंबित रखने का अधिकार नहीं है और यदि कोई बिल राष्ट्रपति को भेजा जाए,
तो उस पर तीन महीने के भीतर फैसला लिया जाना चाहिए।
इस निर्णय के बाद, राष्ट्रपति मुर्मू
ने संविधान के अनुच्छेद 200, 201, 361, 143, 142, 145(3) और 131 के संदर्भ में कोर्ट
से प्रश्न पूछे हैं।
उनके प्रमुख सवालों में शामिल हैं:
1.
जब कोई विधेयक राज्यपाल के पास आता है, तो उनके पास क्या-क्या
संवैधानिक विकल्प होते हैं?
2.
क्या राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह माननी अनिवार्य
है?
3.
क्या राज्यपाल के निर्णयों को न्यायालय में चुनौती दी
जा सकती है?
4.
क्या अनुच्छेद 361 राज्यपाल को न्यायिक समीक्षा से छूट
देता है?
5.
क्या सुप्रीम कोर्ट राज्यपाल के फैसले पर समयसीमा तय कर
सकता है?
6.
क्या राष्ट्रपति के फैसले को भी अदालत में चुनौती दी जा
सकती है?
7.
क्या सुप्रीम कोर्ट की राय लेना राष्ट्रपति के लिए अनिवार्य
है?
8.
क्या अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति या राज्यपाल के संवैधानिक
आदेशों को बदला जा सकता है?
इन सवालों ने भारत के संघीय ढांचे, कार्यपालिका
की जवाबदेही और न्यायपालिका की सीमाओं को लेकर एक गहन बहस छेड़ दी है। अब यह देखना
दिलचस्प होगा कि सुप्रीम कोर्ट इन संवैधानिक सवालों पर क्या रुख अपनाता है और देश के
लोकतांत्रिक संतुलन को किस तरह परिभाषित किया जाता है।
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