विश्लेषण:
“नीति का भ्रम: राहुल की दुविधा ने खोया विपक्ष का
मौका”
राहुल गांधी का विरोधाभासी रुख कांग्रेस की रणनीतिक कमजोरी को उजागर करता है। एक ओर
वे युद्धविराम पर सवाल उठाते हैं, दूसरी ओर आतंकी हमले को युद्ध का आधार मानने का विरोध
करते हैं। यह दोहरा रुख जनता में भ्रम और विरोधाभास पैदा करता है। मोदी सरकार को घेरने
का मौका विपक्ष के हाथ आया था, लेकिन राहुल की असंगठित बातों ने यह मौका गवां दिया।
यह कांग्रेस के लिए न केवल एक राजनीतिक चूक है, बल्कि उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा पर दृष्टिकोण
की अस्पष्टता को भी उजागर करता है। स्पष्ट नीति के अभाव में कांग्रेस की विश्वसनीयता
प्रभावित होती है।
नई दिल्ली: लोकसभा में ‘ऑपरेशन सिंदूर’ पर
भाषण देते हुए कांग्रेस सांसद राहुल गांधी अपनी ही बातों में उलझते नजर आए। उनके भाषण
में स्पष्ट विरोधाभास देखने को मिला, जिससे यह समझना मुश्किल हो गया कि वे भारत को
पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक युद्ध की सलाह दे रहे हैं या फिर डॉजियर की पुरानी नीति
पर वापस लौटने की।
राहुल गांधी ने एक ओर सरकार को
ऑपरेशन सिंदूर के दौरान जल्दबाजी में युद्धविराम करने को लेकर निशाना साधा। उन्होंने
कहा कि "सेना को केवल 22 मिनट की छूट दी गई, जो आत्मसमर्पण जैसा है।" उन्होंने
1971 के युद्ध का उदाहरण देते हुए कहा कि उस वक्त प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जनरल
मानेकशॉ को पूरी स्वतंत्रता दी थी। राहुल का यह बयान इस ओर इशारा करता है कि वे चाहते
थे कि सेना को बिना समय सीमा के काम करने की छूट मिले और युद्ध तब तक जारी रहे जब तक
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) पर निर्णायक कार्रवाई न हो जाए।
लेकिन दूसरी ओर, राहुल गांधी
ने सरकार की इस बात पर आलोचना की कि उसने पहलगाम आतंकी हमले को ‘Act of War’ क्यों
माना। उनका कहना था कि ऐसे आतंकी हमलों को आतंकवाद की श्रेणी में रखकर जवाब देना चाहिए,
न कि युद्ध जैसा दर्जा देकर। वे मानते हैं कि इससे पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंचों
पर यह कहने का मौका मिल जाता है कि भारत ने युद्ध शुरू किया।
यह विरोधाभास यहीं नहीं रुका।
एक तरफ राहुल सेना को "शेर को पिंजरे में बंद" न करने की बात करते हैं, वहीं
दूसरी ओर यह भी चाहते हैं कि भारत सरकार कूटनीतिक मोर्चे पर संयम बरते। उनके इस दोहरे
रुख ने न केवल आम जनता को भ्रमित किया, बल्कि खुद विपक्ष के लिए भी स्थिति असहज बना
दी।
राहुल गांधी का यह भाषण ऐसे समय
आया है जब कांग्रेस पार्टी मोदी सरकार को पाकिस्तान नीति पर घेरने की रणनीति बना रही
थी। लेकिन राहुल की दुविधापूर्ण बातों ने इस अवसर को कमजोर कर दिया।
कांग्रेस के भीतर भी असहमति के
संकेत मिले हैं। शशि थरूर और मनीष तिवारी जैसे नेता मुखर नहीं हो सके, जिससे राहुल
अकेले पड़ गए। उनका भाषण असंगठित और दिशाहीन नजर आया, जो आमतौर पर उनकी शैली नहीं होती।
इस पूरे प्रकरण में यह साफ है
कि राहुल गांधी न तो युद्ध के पक्ष में स्पष्ट रूप से खड़े हो पाए, और न ही शांति की
नीति पर कायम रह सके।
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