आज का विषय – नकारात्मकता का आम जनता पर प्रभाव और नेताओं की चालाकी।
(डॉ. गौतम पाण्डेय का विश्लेषण)
यह विषय इसलिए ज़रूरी है क्योंकि हम सब रोज़ टीवी पर, सोशल मीडिया पर, और राजनीतिक
भाषणों में लगातार ऐसी बातें सुनते हैं जो या तो डर पैदा करती हैं, या नफ़रत, या अविश्वास।
सवाल है – ये बातें क्या वाकई ज़रूरी हैं या किसी एजेंडे का हिस्सा?
हम सब जानते हैं कि नकारात्मक
बातें लोगों को जल्दी प्रभावित करती हैं। एक अफ़वाह, एक आरोप या एक डर – ये सब
लोगों के दिल-दिमाग में इतनी तेज़ी से जगह बना लेते हैं कि वे उसकी पड़ताल करना भी
ज़रूरी नहीं समझते। वहीं अगर कोई नेता या विश्लेषक किसी सकारात्मक बात की चर्चा करता
है, तो उसे या तो नजरअंदाज कर दिया जाता है या शक की निगाह से देखा जाता है।
नेता इसी प्रवृत्ति का फायदा
उठाते हैं। आज का नेता – चाहे वो किसी भी पार्टी का हो – जनता को नेगेटिव सोच में उलझाकर
रखना चाहता है। उन्हें मालूम है कि जब लोग डरेंगे, गुस्सा करेंगे, किसी से नफ़रत करेंगे
– तभी वे अपने पक्ष में जनता की भावना मोड़ सकते हैं।
अब जरा टीवी डिबेट्स को देखिए।
वहां पर आपको शायद ही कोई प्रवक्ता दिखेगा जो अपनी सरकार के सकारात्मक काम गिनाए। सब
एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते हैं। बहस का स्तर इतना गिर चुका है कि पार्टियों
के प्रवक्ता एक-दूसरे को "नीच", "दलाल", "कायर" जैसे
शब्द कहने से भी नहीं हिचकते।
आपको एक वाकया बताता हूँ – मुझे
भी एक बार टीवी डिबेट में दर्शक के तौर पर जाने का मौका मिला। वहां देखा कि जो प्रवक्ता
कैमरे पर एक-दूसरे को गालियां दे रहे थे, ब्रेक के दौरान हँसी-मज़ाक कर रहे थे, चाय
और स्नैक्स का लुत्फ़ ले रहे थे। मुझे उस दिन समझ आया कि राजनीति सिर्फ जनता के सामने
तमाशा है। कैमरे के सामने जंग और कैमरे के पीछे जश्न। और जनता... भावनाओं में बहती
रहती है।
मैंने वहाँ एक सवाल भी पूछा था
– सरकार के प्रवक्ता से। उस पर दर्शकों ने जमकर तालियाँ भी बजाईं। लेकिन वो सवाल टीवी
पर प्रसारित नहीं हुआ। क्यूंकि उस सवाल में सच्चाई थी, तीखापन था – और शायद सरकार को
असहज करने वाला था। उस समय केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और चैनल का सरकार से अच्छा
तालमेल था। इतना अच्छा कि मंत्री तक चैनल के स्टूडियो में तय होते थे! बाद में चैनल
की तरफ से मुझे फिर से बुलाया गया लेकिन मैंने साफ मना कर दिया। क्योंकि मैं तमाशे
का हिस्सा नहीं बनना चाहता था।
अब ज़रा 2014 के बाद के राजनीतिक
विमर्श को देखिए – कोई कहता है कि देश की बर्बादी 2014 से शुरू हुई, तो कोई कहता है
2014 से पहले तो देश में कुछ था ही नहीं। दोनों ही अतिवादी बयान हैं। सच्चाई यह है
कि भारत की तरक्की की नींव दशकों पहले रखी गई थी, और उसे आगे बढ़ाने का काम हर सरकार
ने किया – भले ही वो कांग्रेस हो या भाजपा या कोई अन्य।
भाजपा सरकार ने कई बड़े वादे
किए थे – हर साल 2 करोड़ नौकरियां, किसानों की आय दोगुनी, भ्रष्टाचार मुक्त भारत, कालाधन
वापसी आदि।
लेकिन ज़मीनी हकीकत ये है कि ये वादे पूरे नहीं हो पाए। भ्रष्टाचार आज भी चरम पर है,
किसानों की हालत जस की तस है। यूरिया लेने में मजबूरी से "नेनो यूरिया" भी
लेना पड़ता है। खाद की कालाबाज़ारी अब 'नॉर्मल' हो गई है। किसान की कोई नहीं सुनता।
और फिर विपक्ष, वो भी कम नहीं।
15 लाख रुपये देने के वादे को ऐसा तूल दिया गया कि लोग अब भी सोचते हैं कि सरकार ने
सीधे झूठ बोला। जबकि सच ये है कि उस बयान को लेकर ही भ्रम फैलाया गया। कहा गया था कि
अगर विदेशों में जमा काला धन आ जाए, तो हर नागरिक को 15 लाख तक मिल सकते हैं। लेकिन
किसी ने नहीं पूछा कि काला धन आया क्या?
कुछ नेता तो ऐसे बोलते हैं मानो
उन्हें अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य की कोई जानकारी ही नहीं। भारत ने 2014 के बाद वैश्विक
मंचों पर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज की है – चाहे वो G20 की अध्यक्षता हो, या इन्फ्रास्ट्रक्चर
का विस्तार, या रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता की दिशा में उठाए गए कदम। लेकिन ये
बात भी सच है कि अगर कोई कहे कि 2014 के पहले कुछ भी अच्छा नहीं हुआ था – तो वह भी
सच्चाई से आंखें मूंद रहा है। भारत आज जहां खड़ा है, उसमें अतीत की सरकारों का योगदान
भी रहा है।
अब ज़रूरत है सोचने की
क्या हम इसी तरह नेगेटिव बातों के शिकार बने रहेंगे? या अपने नेताओं से जवाबदेही माँगेंगे?
क्या हम मुद्दों पर चर्चा चाहेंगे या सिर्फ एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना देखेंगे?
कहने को बहुत कुछ है, पर मैं
यहीं रुकता हूँ।
अगर आप चाहते हैं कि इस विषय पर और विस्तार से चर्चा करें, तो कृपया कमेंट करके बताएं।
वीडियो के लिए यहाँ क्लिक करें: https://youtu.be/m3na6Qt2Vg0
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