डॉ. गौतम पाण्डेय का विश्लेषण

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आज एक बेहद गंभीर सवाल देश के सामने है —
क्या हमें प्रेरणा लेनी चाहिए उस इंसान से जिसने 'भगवा आतंकवाद' शब्द गढ़ा?
क्या ऐसे व्यक्ति की सोच देशहित में हो सकती है, जिसने भारत के सनातन प्रतीकों को आतंक से जोड़ने का दुस्साहस किया? और ऐसे लोग जब राष्ट्र पर संकट हो, तब शांति और संयम की बातें करते हैं, तो उनके इरादों पर सवाल खड़ा होना लाज़मी है।

 

क्या विपक्ष का सरकार को समर्थन महज़ एक दिखावा था?
सर्वदलीय बैठक में एक सुर में बोलने वाले नेता बाहर निकलते ही सरकार पर सवाल उठाने लगते हैं। पी. चिदंबरम और शशि थरूर जैसे वरिष्ठ नेताओं ने सीजफायर की सराहना की, लेकिन कांग्रेस ने उन्हें "व्यक्तिगत राय" कहकर किनारे कर दिया। क्या कांग्रेस पार्टी की "संस्थागत राय" वही है जिससे देश में तबाही मच जाए?

 

सच तो यह है कि विपक्ष कभी भी पूरी तरह सरकार के साथ खड़ा था ही नहीं, खासकर कुछ पार्टियाँ तो मौके का फायदा उठाने में ही लगी रहीं।

 

सरकार ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि इस घटना में इंटेलिजेंस की विफलता रही है और इसकी जांच कराई जाएगी। यह एक बड़ा और जिम्मेदार कदम था। लेकिन विपक्ष ने यहां भी सवाल खड़े करने शुरू कर दिए—कि “फौरन एक्शन क्यों नहीं हुआ?”, “आतंकी पकड़े क्यों नहीं गए?”—मानो उन्हें हर जवाब ऑन द स्पॉट चाहिए।

अगर इतनी ही फास्ट जस्टिस चाहिए, तो बताइए, मुंबई के ताज होटल पर जब हमला हुआ था, तब आप कहाँ थे? क्यों चुप थे? क्यों डर के मारे या वोटबैंक के दबाव में भगवा आतंकवाद जैसा शब्द गढ़ दिया गया?


ये वही दोहरा रवैया है जो कांग्रेस और कुछ विपक्षी दलों को छोड़ना ही पड़ेगा—वरना अगला चुनाव इनका और भी बुरा हाल करने वाला है।

 

यहां एक बात तारीफ की हकदार है—असदुद्दीन ओवैसी
मतभेदों के बावजूद उन्होंने बिना किसी शर्त और सवाल के सेना और सरकार के समर्थन में बयान दिया। देश के भीतर चाहे उनकी राजनीति कैसी भी हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ओवैसी ने हमेशा भारत का पक्ष मजबूती से रखा है
याद करिए जब कांग्रेस के मणिशंकर अय्यर पाकिस्तान जाकर मोदी को हटाने में मदद मांग रहे थे, तब ओवैसी पाकिस्तानियों को उन्हीं की भाषा में जवाब देकर आये थे। ऐसे इंसान से बड़ा देशभक्त कौन होगा?

 

इसके विपरीत, कुछ लोग हैं जिन्हें अपने देश में कोई नहीं पूछता, लेकिन विदेशी विश्वविद्यालयों में इन्हें "प्रेरणा स्रोत" बना दिया जाता है। क्या यही हैं हमारे रोल मॉडल?

 

देश की जनता को अब समझना होगा कि कौन सच में भारत के साथ है, और कौन महज़ अवसरवादी बनकर सियासी नौटंकी कर रहा है।

 

शायद वे लोग, जो यह कहते हैं कि "पाकिस्तान को नेस्तनाबूद कर दो", उन्होंने शायद पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ का वह बयान नहीं सुना, जिसमें उन्होंने एक टीवी चैनल पर कहा था — "अगर हमें यह लगेगा कि पाकिस्तान का अस्तित्व खतरे में है, तो हम पूरी दुनिया को तबाह कर देंगे। अगर मैं नहीं बचूंगा, तो कोई और क्यों बचे?"

 

हैरानी होती है कि इतनी स्पष्ट चेतावनी के बावजूद कुछ लोग क्यों यह नहीं समझ पाते कि हालात को संतुलन और विवेक से संभालना कितना ज़रूरी है।

 

मेरे विचार से देश के प्रधानमंत्री और सेना ने जो कदम उठाए हैं, वे प्रशंसा के योग्य हैं। अगर सीमित कार्रवाई से ही मकसद पूरा हो गया है, तो फिर अतिरिक्त संसाधनों की बर्बादी क्यों की जाए?

 

हाँ, एक और बात यह भी है कि हाल ही में खरीदे गए आधुनिक हथियारों की क्षमता का भी यह एक अच्छा परीक्षण हो गया — यह देखने का मौका मिला कि वे युद्ध की स्थिति में कितने कारगर और भरोसेमंद हैं। वरना अब तक तो केवल प्रयोगशाला या शुरुआती परीक्षण ही हुए थे।

 

युद्ध, कभी भी किसी समस्या का स्थायी समाधान नहीं होता। आज दुनिया देख रही है — रूस-यूक्रेन और इजराइल-फिलिस्तीन जैसे युद्ध वर्षों से चल रहे हैं, लेकिन नतीजा क्या निकला? सिर्फ तबाही, बर्बादी, और लाखों मासूमों की मौत। क्या भारत को भी उस दिशा में ले जाने की तैयारी है?

 

रूस एक महाशक्ति है, यूक्रेन कमजोर है। इजराइल टेक्नोलॉजी में दुनिया में अव्वल है, पर फिलिस्तीन के पास कुछ नहीं। फिर भी युद्ध रुक नहीं रहा।

 

क्या भारत की विपक्षी पार्टियाँ यही चाहती हैं — एक नया युद्ध, जिससे देश की प्रगति थम जाए?

 

जनता भावुक होती है, वह कह देती है — "आर-पार की लड़ाई होनी चाहिए!"
लेकिन नेतागण क्या भावुकता में फैसले करेंगे? राष्ट्रनीति, भावना से नहीं, विवेक से चलती है।

 

मीडिया में आजकल कुछ अति – ज्ञानी दिखाई देने लगे हैं जो इंदिरा गांधी के युग की मिसालें देते हैं। कहते हैं — "इंदिरा जी ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए!"
सही है, लेकिन एक बात याद रखिए — तब भारत और पाकिस्तान दोनों परमाणु संपन्न नहीं थे। आज पाकिस्तान बार-बार खुलकर परमाणु हमले की धमकी देता है।
क्या विपक्षी नेताओं को इस खतरे की गंभीरता नहीं समझ आती?

 

कांग्रेस बार-बार 1971 की जीत का गुणगान करती है। 90,000 पाकिस्तानी सैनिकों ने आत्मसमर्पण किया था, फिर भी आप POK नहीं ले पाए, अक्साई चीन हाथ से गया, और पाकिस्तान की जेलों में बंद 39 भारतीयों तक को नहीं छुड़ा सके। उसके उलट, आज उन्हीं की नीति के कारण लाखों बांग्लादेशी और रोहिंग्या भारत में अवैध रूप से बस चुके हैं।

 

और हालिया रिपोर्ट देखिए — 1958 से भारत में रह रहा एक पाकिस्तानी अब हमारी पुलिस में नौकरी कर रहा है! आधार, पासपोर्ट, वोटर आईडी सब कुछ है, बस भारतीय नागरिकता नहीं। ये किसकी देन है? किसकी लापरवाही है?

 

आपको ये भी जानना चाहिए कि ऑपरेशन सिन्दूर के तहत भारत ने सिर्फ आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया, जबकि पाकिस्तान ने आम नागरिकों पर मिसाइल और ड्रोन से हमला किया।


सूत्रों के अनुसार, एक मिसाइल की दिशा दिल्ली की ओर थी! सोचिये, अगर हम उसे रोक नहीं पाते तो क्या होता? महाविनाश निश्चित था क्यूंकि भारत को भी जवाबी कार्रवाई में बहुत आगे बढ़ना पड़ता।

 

हम आतंकवाद पर सख्ती से वार भी करें और अपने नागरिकों की सुरक्षा भी सुनिश्चित करें, इसके लिए कभी-कभी पीछे हटना भी रणनीति का हिस्सा होता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने भी रण छोड़ा था — और वही रणछोड़ कहलाए, पर अंत में विजयी हुए।

 

देश की जनता से मेरी अपील है — राजनीतिक नकाबपोशों से सावधान रहें! ऐसे वक्त में देश को एकजुटता चाहिए होती है, बयानबाजी नहीं।


आज 26 भारतीयों की नृशंस हत्या ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया है। हम सभी दुखी हैं, पीड़ित परिवारों के साथ हैं। लेकिन सोचिए, अगर युद्ध होता है तो कितने परिवार उजड़ जाएंगे? क्या कोई नेता यह ज़िम्मेदारी लेगा कि उसने सरकार को युद्ध के लिए फ्री हैंड दिया था? नहीं! कल वही नेता बोलेंगे — "सरकार को सोच-समझ कर निर्णय लेना चाहिए था।"

 

मुझे उम्मीद है कि आप सब धैर्य बनाए रखेंगे। जैसे हम अपने मोहल्ले में विवाद होने पर भी किसी की जान लेने नहीं चले जाते, वैसे ही राष्ट्रों के बीच भी संयम ज़रूरी है।


यह दुनिया एक वैश्विक मोहल्ला है — और इसमें विवेक से काम लेना चाहिए।

 

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जय हिंद!

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