पूर्णिया, डॉ. गौतम पाण्डेय: आपने भी एक बात तो जरूर नोट की होगी कि आज कल दिवंगत पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की स्मारक की चर्चा कहीं नहीं हो रही है। पता नहीं, जिस कांग्रेस के सभी छोटे – बड़े नेता दिन – रात इस बात की जिद्द लगाए रहते थे, पूरी की पूरी मीडिया इसी बात के हेडलाइंस से भरी होती थी, कि स्मारक के लिए जमीन दो, अब वो मुद्दा अचानक से ही गायब हो गया और कोई कुछ बोल भी नहीं रहा है।

 

सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, इंडी गठबंधन के और भी नेता ये दर्शाने की कोशिश करते थे कि एनडीए सरकार नहीं चाहती स्मारक बनाना। एक बहुत बड़े नेता ने तो ये तक कह दिया कि मोदी सरकार पहले सिख प्रधानमंत्री को सम्मान ही नहीं देना चाहते। इस तरह की कई बातें होती थी। अब पता नहीं सब को क्या हो गया, कोई कुछ बोल ही नहीं रहा है। लगता है इन लोगों ने उस मुद्दे को ही दफ़न कर दिया। लेकिन मैं इस मुद्दे को फिर से जिन्दा कर रहा हूँ।

 

भारत में पूर्व प्रधानमंत्रियों के योगदान को सम्मान देने के लिए स्मारक बनाने की परंपरा रही है। यह परंपरा न केवल एक नेता के कार्यकाल को सम्मानित करती है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा भी देती है। लेकिन हाल के वर्षों में स्मारकों की राजनीति ने इन प्रयासों की पवित्रता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। डॉ. मनमोहन सिंह, जिन्हें देश के पहले सिख प्रधानमंत्री होने का गौरव प्राप्त है, के स्मारक को लेकर जो राजनीति देखने को मिली, वह इस बात का प्रमाण है कि स्मारक अब राजनीति का औजार बन गए हैं।

 

कांग्रेस पार्टी और उसके सहयोगी दलों ने डॉ. मनमोहन सिंह के स्मारक की मांग को जोर-शोर से उठाया, लेकिन अब यह मुद्दा पूरी तरह से ठंडे बस्ते में जाता दिखाई दे रहा है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या यह मांग सच्चे सम्मान का प्रतीक थी, या फिर केवल सियासी स्वार्थ की पूर्ति का एक साधन?

 

डॉ. मनमोहन सिंह: सादगी, विद्वता और नेतृत्व का प्रतीक

डॉ. मनमोहन सिंह का नाम भारतीय राजनीति में एक ऐसे नेता के रूप में लिया जाता है, जिन्होंने अपनी सादगी, विद्वता और आर्थिक समझ से देश को प्रगति की राह पर आगे बढ़ाया। 1991 में जब भारत आर्थिक संकट से गुजर रहा था, तो तत्कालीन वित्त मंत्री के रूप में डॉ. सिंह ने साहसिक आर्थिक सुधार लागू किए। उनके इन प्रयासों ने भारत को वैश्विक आर्थिक मंच पर प्रतिस्पर्धी बनाया।

2004 से 2014 तक दो कार्यकालों तक प्रधानमंत्री रहे डॉ. सिंह ने कई महत्त्वपूर्ण योजनाओं और सुधारों को लागू किया। हालाँकि, उनके नेतृत्व के दौरान भ्रष्टाचार के कई बड़े मामलों ने उनके कार्यकाल को विवादित भी बना दिया।

 

विडंबना यह है कि जिस पार्टी ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया, वही पार्टी उनके कार्यकाल के दौरान उन्हें वह सम्मान नहीं दे पाई जिसके वे हकदार थे। अक्सर यह आरोप लगता रहा कि कांग्रेस की “डबल पावर सेंटर” की व्यवस्था में निर्णय लेने की शक्ति सोनिया गांधी के हाथ में थी, जबकि डॉ. सिंह को केवल एक रबर स्टैंप की तरह इस्तेमाल किया गया।

 

स्मारक का मुद्दा: सम्मान या सियासी चाल?

डॉ. मनमोहन सिंह की स्मारक की मांग को कांग्रेस पार्टी और INDI गठबंधन ने जोर-शोर से उठाया। उन्होंने इसे एक भावनात्मक मुद्दा बनाते हुए इसे सिख समुदाय के सम्मान से जोड़ा। कई नेताओं ने कहा कि केंद्र की मोदी सरकार सिख समुदाय का अपमान कर रही है और वह देश के पहले सिख प्रधानमंत्री को सम्मान नहीं देना चाहती।

 

इस मांग के पीछे कांग्रेस की असली मंशा पर सवाल उठता है। क्या यह मांग वास्तव में डॉ. सिंह के प्रति सम्मान का प्रतीक थी, या फिर 1984 के सिख दंगों के दाग को धोने का प्रयास?

 

1984 में सिख विरोधी दंगों ने कांग्रेस पार्टी की छवि को गहरी क्षति पहुँचाई। सिख समुदाय में पार्टी के प्रति गुस्सा आज भी कायम है। पंजाब, जो कांग्रेस का गढ़ माना जाता था, अब उसके हाथ से निकल चुका है। ऐसे में कांग्रेस ने डॉ. सिंह की स्मारक की मांग को एक रणनीति के रूप में इस्तेमाल किया, ताकि सिख समुदाय के साथ अपने संबंध सुधार सके।

 

1984 दंगे: कांग्रेस की छवि पर लगा काला धब्बा

1984 के दंगे भारतीय राजनीति का एक ऐसा अध्याय है, जिसने कांग्रेस पार्टी की साख पर गहरा दाग लगाया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, पूरे देश में सिखों के खिलाफ हिंसा फैली। इस हिंसा में कांग्रेस के कई नेताओं पर सक्रिय भूमिका निभाने के आरोप लगे।

 

दंगों के दौरान राजीव गांधी का विवादित बयान, “जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती हिलती है,” सिख समुदाय के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा था। यह बयान आज भी सिख समुदाय के मन में कांग्रेस के प्रति गुस्से का प्रतीक है।

 

कांग्रेस पार्टी जानती है कि 1984 के दंगों का दाग मिटाना असंभव है। लेकिन डॉ. मनमोहन सिंह की स्मारक की मांग उठाकर पार्टी ने यह संदेश देने की कोशिश की कि वह सिख समुदाय की हितैषी है।

 

कांग्रेस का इतिहास: अपने नेताओं के साथ कैसा व्यवहार?

यह पहली बार नहीं है जब कांग्रेस पर अपने नेताओं को सम्मान न देने का आरोप लगा है। पी. वी. नरसिम्हा राव, जिन्होंने भारत के आर्थिक सुधारों की नींव रखी, उनके अंतिम संस्कार के समय कांग्रेस नेतृत्व की अनुपस्थिति ने सबको चौंका दिया। पार्टी ने उन्हें कांग्रेस मुख्यालय में श्रद्धांजलि देने की अनुमति भी नहीं दी।

 

इसी तरह, प्रणव मुखर्जी, जो लंबे समय तक कांग्रेस के प्रमुख स्तंभ रहे और राष्ट्रपति बने, को पार्टी ने कभी वह सम्मान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। जब नरेंद्र मोदी सरकार ने 2019 में प्रणव मुखर्जी को भारत रत्न से सम्मानित किया, तो कांग्रेस की चुप्पी इस बात का प्रमाण थी कि पार्टी ने उन्हें हमेशा नजरअंदाज किया।

 

डॉ. मनमोहन सिंह के स्मारक की मांग उठाकर कांग्रेस ने यह दिखाने की कोशिश की कि वह अपने नेताओं का सम्मान करती है। लेकिन पार्टी का इतिहास इसके विपरीत कहता है।

 

मोदी सरकार का रुख और कांग्रेस की राजनीति

मोदी सरकार ने हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के स्मारक का निर्माण करने का फैसला किया। इस निर्णय पर कांग्रेस और इंडी गठबंधन के नेताओं ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। यह चुप्पी इस बात का संकेत है कि कांग्रेस का असली उद्देश्य स्मारकों के माध्यम से सम्मान देना नहीं, बल्कि राजनीति करना है।

 

डॉ. मनमोहन सिंह के स्मारक की मांग को लेकर कांग्रेस ने जिस तरह से सरकार पर हमले किए थे, वह अब पूरी तरह से गायब हो चुके हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि कांग्रेस इस मुद्दे को केवल एक राजनीतिक हथियार के रूप में इस्तेमाल कर रही थी।

 

स्मारकों की राजनीति: एक व्यापक परिप्रेक्ष्य

स्मारक किसी भी देश की सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत का हिस्सा होते हैं। वे न केवल नेताओं के योगदान को सम्मानित करते हैं, बल्कि उनकी विचारधारा को जीवित रखते हैं। लेकिन जब स्मारकों को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल किया जाता है, तो उनका महत्व खत्म हो जाता है। डॉ. मनमोहन सिंह की स्मारक की मांग ने भारतीय राजनीति में स्मारकों की उपयोगिता पर एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है।

 

विश्लेषण:

सच्चा सम्मान या राजनीतिक औजार?

डॉ. मनमोहन सिंह का नाम भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था में उनके योगदान के लिए हमेशा याद रखा जाएगा। उनके लिए स्मारक की मांग करना एक उचित विचार हो सकता है, लेकिन इसे सियासी लाभ के लिए इस्तेमाल करना उनके योगदान का अपमान है।

 

कांग्रेस पार्टी और इंडी गठबंधन को आत्मचिंतन करना चाहिए कि क्या वे वास्तव में डॉ. सिंह का सम्मान करते हैं, या फिर उन्हें केवल एक राजनीतिक उपकरण के रूप में देख रहे हैं। स्मारकों का निर्माण नेताओं को सम्मानित करने का माध्यम होना चाहिए, न कि राजनीतिक स्वार्थ का औजार।

 

डॉ. मनमोहन सिंह जैसे महान नेता का सम्मान उनके कार्यों और विचारों को आगे बढ़ाने में है, न कि केवल स्मारक के नाम पर राजनीति करने में। भारतीय राजनीति को इस विषय पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है, ताकि स्मारकों का वास्तविक महत्व बना रहे।

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