महाकुम्भ: महाकुम्भ आयोजन न तो कोई आयोजित
करवा सकता है और न ही नियंत्रित कर सकता है। इस महाआयोजन में सिर्फ अपने-अपने हिस्से
से भागीदारी ही की जा सकती है। जिन लोगों हमेशा इस बात का विरोध-आरोप रहता है कि भारत
में बहुदेववाद है, जाति-पाति है, ऊंच-नीच है, छुआछूत है, उनसे विनम्र अनुरोध है कि
वह इस महाकुम्भ के आयोजन पर प्रयाग अवश्य आएं। आस्थावश न भी आएं तो निरीक्षण-परीक्षण
के लिये ही आ जाएं। स्वयं ही ज्ञानचक्षु खुल जाएंगे, सारी भ्रांतियां-भ्रम दूर हो जाएंगें,
सारी शिकायतें दूर हो जाएंगी। सभी स्थापित नैरेटिव टूट जाएंगे। अयोध्या धाम के श्रीहनुमत्
निवास के महंत आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण जी से हिन्दुस्थान समाचार के मुख्य समन्वयक
एवं कुम्भ प्रभारी राजेश तिवारी ने बातचीत की है। पेश है उसके प्रमुख अंश...
प्रश्न : कुम्भ से क्या तात्पर्य है, इसके क्या निहितार्थ हैं?
उत्तर : कुम्भ का सीधा सा अर्थ है-घड़ा। लेकिन कैसा घड़ा? वैसा घड़ा जिसमें अमृत
भरा हो। जब समुद्र मंथन हुआ था तो उसमें से अमृत का घड़ा निकला था। अमृत पीना तो असुर
भी चाहते थे। लेकिन देवता नहीं चाहते थे कि असुर अमृत का सेवन करके अमर हो जाएं, इसके
लिए इंद्र के पुत्र जयंत ने अमृत कलश लेकर भाग निकले। भागने के क्रम में उस कलश से
बारह जगह अमृत की बूंदें गिरी थीं। आठ बूंदे स्वर्ग और चार पृथ्वी पर गिरी। जो चार
स्थान पृथ्वी पर हैं-प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। यह तो हुई पौराणिक कथा। अगर
समय के अनुसार देखें तो बारह साल का एक युग होता है (कलयुग में)। बारह साल को चार से
भाग देते हैं। जिसमें तीन-तीन वर्ष पर यह चारों स्थान पर कुम्भ लगता है। चौथा और अंतिम
कुम्भ प्रयाग में संपन्न होता है। इसीलिए यह महाकुम्भ कहलाता है।
प्रश्न : प्रयागराज के महाकुम्भ की क्या मान्यताएं है?
उत्तर : इसकी मान्यता याज्ञवल्क्य ऋषि की पत्नी मैत्रियी से है। मैत्रियी पूछती
है कि-मृत्युलोक से पार पाना कैसे संभव है। तब ऋषि बताते हैं कि, भगवान शिव एक अमरकथा
सुनाते हैं। वह अमर कथा कुछ और नहीं-रामकथा ही है। जहां भी रामकथा सुनाई जाती है उस
जगह अमृत बरसता रहता है। तो भारद्वाज ऋषि ने उनसे प्रार्थना की कि वह रामकथा सुनाएं।
जिस जगह रामकथा सुनायी गयी वही प्रयाग कहलाया। उसी प्रयाग पर महाकुम्भ मेला आयोजित
किया जाता है। शिव परंपरा से चली आ रही यह कथा अनादि है। इसीलिए जो अनादि हैं वह अमृत
कहलाता है। अमर हो जाता है, जो यह कथा सुनता सुनाता है। इसीलिए प्रयाग में लगा कुम्भ
को महाकुम्भ कहते हैं। क्योंकि यह ज्ञान के रूप में सारी चीजों को एक जगह इकट्ठा कर
लेता है।
प्रश्न : संगम का क्या महत्व है?
उत्तर : संगम का सीधा-सा तात्पर्य है जहां दो तत्त्वों का मिलन हो। फिर चाहे
उसका स्वरूप जैसा हो। माना जाता है कि प्रयाग ब्रह्म का यज्ञवेदी है। जिसके पांच कुंड
हैं। और यह क्षेत्र काफी लंबा चौड़ा है। कुछ वैसे ही जैसे अयोध्या। बारह योजन लंबी और
तीन योजन चौड़ी थी। इसीलिए मैं शुरू से कहता रहा हूं कि प्रशासन द्वारा निर्मित घाट
ही संगम हैं, ऐसी बात नहीं है। यह तो सुरक्षा मानकों को ध्यान में रखकर बनाया गया है।
नहीं तो पुराण में वर्णित ऋणमोचन तीर्थ का वर्णन है। अक्षयवट और सरस्वती कूप कहां स्थित
है, सब तो प्रयाग में ही अवस्थित है। फिर जिसको जहां जगह मिले उसे वहीं स्नान कर लेना
चाहिए। यही प्रयागराज का महत्त्व भी है। दस हजार मुख्यतीर्थ, साठ हजार गौणतीर्थ यहां
निवास करते हैं। सब प्रयाग में ही तो हैं। किले के नोक पर स्थित संगम ही संगम है, तो
बाकी को क्या कहेंगे! जहां गंगा-यमुना मिलती है, वही सिर्फ संगम है तो मिले जल को क्या
कहेंगे! सरकार सुरक्षा के मानकों के लिए कुछ घाट अवश्य बनाए हैं। पर संगम तो संगम है।
बहुत लंबा चौड़ा भू-भाग है। इसीलिए अव्यवस्था न फैले इस हेतु सभी लोगों से अपील भी है
कि वह प्रयाग में डुबकी लगाएं। संगम घाट पर स्नान की प्रतीक्षा न करें।
प्रश्न : अमृत तत्व क्या है?
उत्तर : अमृत तत्व से सीधा तात्पर्य अमरता से है। कैसी अमरता? कुम्भ के माध्यम
से हम वंशानुगत होकर इस कुम्भ में डुबकी लगा रहे हैं। अमृतपान कर अमर हो जाने में कुम्भ
का बड़ा योगदान है। कभी हम पितामह के रूप में इस कुम्भ में आए थे। अब पिता के रूप में
आए हैं। पुनः, पुत्र और पौत्र के रूप में भविष्य में आएंगे। यह जो तीनों काल में आप
इस कुम्भ में उपस्थित हैं, वही तो अमृत है। संभव है, कभी आप वंशानुगत परंपरा में कुम्भ
में शामिल न हुए हों, लेकिन कभी गुरु-शिष्य की परंपरा में तो कभी संत परंपरा में आप
अवश्य शामिल हुए होंगे, उपस्थित रहे होंगे। यही तो आत्मा की अमरता है। एक शरीर से दूसरे
शरीर की अनवरता यात्रा ही तो अमरता है। इसे ऐसे भी समझें कि जैसे बांस और दूर्वा गांठ
दर गांठ आगे बढ़ता चला जाता है, लेकिन संपूर्ण रूप में उसे बांस या दूर्वा ही बुलाते-पुकारते
हैं। वैसे ही पीढ़ी दर पीढ़ी मानव अपने वंशों में बढ़ता रहता है। वह हर कालखण्ड में जिंदा
रहता है, उपस्थित रहता है, कालनिरपेक्ष रहता है। ब्राह्मी चेतना के माध्यम से। ब्राह्मी
चेतना ईश्वर तत्त्व को पाने का ही नाम है। और ईश्वरीय चेतना ही अमरता है।
प्रश्न : सरस्वती धारा लुप्त होने का कारण क्या है?
उत्तर : तीन लोक हैं- आकाश, धरती और पाताल। आकाश से गंगा उतरती है। पर्वतीय
कंदराओं से यमुना और पाताल से सरस्वती। दो तो यहां दृश्यमान हैं, पर एक नहीं। इसीलिए
कहा जाता है कि सरस्वती यहां अंतःसलिला है या अंतःप्रवाहिनी है। यह तो हुआ शास्त्रीय
कथन। व्यावहारिक रूप से सरस्वती ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी हैं। वह कुम्भ में यत्र-तत्र-सर्वत्र
विद्यमान हैं। वह मूर्तिवत् स्वरूप में चहुंओर चहक रही हैं। अपने होने पर इठला रही
हैं। प्रयागराज में आयोजित कुम्भ में आप सबको हर समय वेदपाठ, मंत्र और ज्ञान के शब्द
सुनाई पड़ेंगे। कर्म, भक्ति, ज्ञान और वैराग्य भला इससे ज्यादा कहां दिखाई-सुनाई पड़ता
है। तभी तो मैं कहता हूं कि, 'कौन कहता है सरस्वती अंतःप्रवाहिनी हैं। वह तो साकार
रूप में सर्वत्र विद्यमान है। उनसे ज्यादा यहां कौन मुखर है?
प्रश्न : अध्यात्म और विज्ञान में कौन बड़ा है?
उत्तर : हथेली में जितनी जगह नाखून की होती है उतनी ही जगह धर्म में विज्ञान
की होती है। नाखून से क्या कर सकते हैं सिवाय शरीर के खुजली मिटाने को। बस इतना ही
विज्ञान कर सकता है। खुजली मिटा सकता है इससे ज्यादा कुछ नहीं। जो यह कहते हैं धर्म
को वैज्ञानिक होना चाहिए हमारी नजरों में वह मूर्ख हैं। विज्ञान को धार्मिक होना चाहिए,
नहीं तो वह विज्ञान जल्दी ही धरती को नष्ट कर देगा। और कर क्या देगा, कर रहा है। हमने
प्रकृति में प्रदूषण फैलाने के अलावा भी कुछ किया है क्या? विज्ञान धर्म के अभाव में
प्रदूषण फैला रहा है। जो धरती अनंत वर्षों से गतिमान है, वह पचास वर्ष में खत्म हो
जाएगी, ऐसी भविष्यवाणी करना ही विज्ञान है। तो फिर जो समता, बंधुता, समरसता, गांव,
गौ, गंगा, गीता, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य की बात करता है उसे आप क्या कहना चाहेंगे। अनंत
काल से पृथ्वी पर लोग रहते आए हैं। पर चंद वैज्ञानिक उपकरण पृथ्वी नष्ट करने वाले हैं।
तो इसी से आप पता कर लीजिए जो सकारात्मक रचता है वह बड़ा है या जो रचितों को नष्ट करता
है वह बड़ा है। यही धर्म और विज्ञान है। विज्ञान को धर्म-अध्यात्म की तरफ लौटना ही होगा।
अन्यथा आने वाली समय की कल्पना आप स्वयं कर लें। इसीलिए मैं कहता हूं धर्म बड़ा है।
हिमालय रूपी महान धर्म के सामने विज्ञान सरसां के दाने के बराबर है। धर्म ही हमें बचाएगा
और बनाएगा।
प्रश्न : सनातन-धर्म क्या है?
उत्तर : दो शब्द है सनातन और धर्म। धर्म के दस लक्षण हैं-ब्रह्मचर्य, सत्य,
तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय। जो भी इन्हें मानता है, अपने
जीवन में अनुसरण करता है वह धार्मिक कहलाएगा। चाहे वह किसी भी पंथ का हो। रही बात सनातन
की तो जो सर्वकाल में विद्यमान हो वही सनातन है। तीन काल भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों
में जो सत्य स्थायी हो, वही सनातन है। सनातन मूल विचार है क्रिया नहीं। क्रिया बदलने
से आचार बदल जाते हैं, बदल सकते हैं। जो विचार न बदले वही सनातन है। क्रिया तो स्थिति
पर निर्भर करती है। स्थान, समय, काल, देश, स्थिति पर यह बदल ही जाती है। पर सत्य किसी
भी आरोपित का आश्रित नहीं रहता है। वह सर्वकालिक और सार्वभौमिक रहता है। जो लोग हिंदू
धर्म को समझते नहीं, सनातन का जिन्हें बोध नहीं है, वही आलोचना और अनर्गल बोलते हैं।
सनातन को तो कोई छू भी नहीं सकता। तमाम प्रयासों के बावजूद। क्यों? क्योंकि सनातन स्वयं
में सिद्ध-प्रामाण्य होता है।
प्रश्न : मनुस्मृति पर आपका क्या विचार है?
उत्तर : क्या विचार होना चाहिए? वह आचार संहिता है। जब संविधान नहीं था तो क्या
था। यह देश और समाज कैसे चल रहा था। मैं दावा करता हूं कि जो व्यक्ति मनुस्मृति की
आलोचना करते हैं वह उसे पढ़े ही नहीं होंगे। क्यों? क्योंकि अगर पढ़ लेते तो ऐसी मूर्खता
का परिचय नहीं देते। वैसे मैं बताता चलूं की हर काल की अपनी एक अलग आचार-स्मृति होती
है। जैसे कि सतयुग के लिए मनुस्मृति है तो कलयुग के लिए पराशर-स्मृति। जिन्हें इतनी
छोटी-सी बात का बोध नहीं कि सतयुग के स्मृतियों को कलयुग की स्मृति बताकर धर्म और सनातन
को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, उन पर दया आती है। आनी भी चाहिए। और मेरा तो यह मानना-कहना
है कि कौन मनुस्मृति को मान रहा है। जरा मुझे बताइए। व्यक्ति, समाज, कानून, राज्य,
देश-कोई भी तो नहीं! पर इतना हल्ला क्यों मचा है? सब वोट की राजनीति है। इससे ज्यादा
कुछ नहीं।
प्रश्न : वर्णाश्रम क्या है? इसकी इतनी आलोचना क्यों की जाती है?
उत्तर : वर्णाश्रम एक व्यवस्था है। इससे ज्यादा कुछ नहीं। वर्णाश्रम व्यवस्था
के अनुसार चार वर्ण होते हैं- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। क्या आज यह व्यवस्था
खत्म हो गई है। अगर हां तो मुझे बताइए कि एक अधिकारी को ज्यादा शारीरिक परिश्रम नहीं
करना पड़ता है। फिर भी उसे अधिक वेतन और सुविधाएं दी जाती हैं। मान-सम्मान दिया जाता
है। उसी के नीचे काम कर रहे चपरासी के बारे में क्या कहेंगे? चलिए कुछ और न सही कम
से कम वेतन ही बराबर कर दें। कर देंगे क्या? सुनिए, राजनीति में धर्म का होना नितांत
जरूरी है लेकिन धर्म में राजनीति घुस आए तो बड़ी विकट और दुखदाई स्थिति उत्पन्न हो जाती
है। ऐसी स्थिति वर्तमान में दिख भी रही है। मैं तो वर्ण व्यवस्था को वैज्ञानिक मानता
हूं। वर्ण ही क्यों, आश्रम-पुरुषार्थ सभी व्यवस्था को मानता हूं। और जो नहीं मानते
हैं, वे आकर हमसे शास्त्रार्थ कर लें। और इससे ज्यादा क्या कहूं। ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि
दें।
प्रश्न : युवा अवस्था का नाम है या भाव का, आप इसे कैसे परिभाषित करेंगे?
उत्तर : जवानी घोर अंधकार का नाम है। कोई बुजुर्ग, अनुभवी या न्याय शास्त्र
की समझ रखने वाला व्यक्ति ही आपको इससे बाहर निकाल सकता है। जो किसी को अपने अधीन कर
दे, वही युवा है। इस पक्ष में कईं शास्त्र सम्मत कहानियां हैं। राम इसके एक उदाहरण
हो सकते हैं। अभी का युवा, युवा नहीं है। अतीत का भार और भविष्य की चिंता ही हमें युवा
बना सकता है। जिनके कंधों पर अतीत का भार बैठा हो और जिसके गोद में भविष्य पल रहा हो
उसका नाम युवा है। जो एक हाथ से अतीत, एक हाथ से भविष्य को पकड़े है-वह युवा है। वर्तमान
में रहना ही युवा है। युवा हैं-राम और लक्ष्मण। रामकथा पढ़कर खुद ही समझ क्यों नहीं
लेते। ज्ञान जान लीजिए कि आप युवा हैं भी या सिर्फ गिनती वाली उम्र के पड़ाव पर खड़े
हैं स्वघोषित युवा हैं।
प्रश्न : आधुनिक समय में युवाओं को और विश्व को क्या कुछ संदेश देना चाहते हैं?
उत्तर : युवा को हमेशा वर्तमान में रहना चाहिए। इसी क्षण, यही वक्त-वही युवा
है। सपना देखना बच्चों का काम है। कहानी-अनुभव, कहना-सुनना बुजुर्गों का काम है। लेकिन
काम करना युवा का दायित्व है। युवा से अपील है ज्ञान से विज्ञान की ओर और विज्ञान से
आस्तिकता की ओर बढ़ें। चेतना-क्रिया और शक्ति की स्थापना का नाम युवा है। इस महाकुम्भ
के माध्यम से विश्व को यह संदेश है कि, शांति ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। जो सम्पूर्ण
भारतभ्रमण नहीं कर सकते, वह महाकुम्भ में अवश्य आएं। एक स्थान पर संपूर्ण भारत का दर्शन
होगा। यहां सिर्फ भौगोलिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक दर्शन भी
सहज रूप से हो जाएंगे। हिस
धर्म में विज्ञान की उतनी ही जगह, जितनी हथेली में नाखून की: आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण

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