राहुल झा का विश्लेषण (संपादक
GPNBihar)
आज कल सभी राजनैतिक दल सामाजिक समीकरण और जातियों
की संख्या पूरे शिद्दत के साथ अपने कंप्यूटर या डाटाबेस में भरने की तैयारी कर रही
है। बात तो सभी करते हैं मुद्दों के आधार पर राजनीति करने का लेकिन, अंदरखाने जातीय
समीकरण का जोड़ घटा चलता रहता है। आइए हमलोग भी सीमांचल के दृष्टिकोण से इन समीकरणों
की विवेचना करते हैं। यहां एक बात गौर करने लायक है कि अधिकांशतः सिर्फ संख्या पर ध्यान
केन्द्रित किया जाता है। जातियों की विवेचना के वक्त जो मुद्दे छूट जाते हैं वो हैं,
उनका वोटिंग प्रतिशत और समाजिक पहुंच एवं प्रभाव।
इस कड़ी में आज हम बात करते हैं मुसलमानों की एक
जाति शेरशाह वादी की । कुल मतदाताओं में इनकी संख्या प्रतिशत के आधार पर लोग सात से
ग्यारह तक गिनवाते हैं, हमारा डाटा इसे आठ प्रतिशत मानता है। यहां गौर करने लायक बात
ये है कि मुसलमानों के इस बिरादरी की समाजिक पहुंच कार्य की समानता के कारण हिन्दुओं
के अनूसूचित जाति - जनजाति के बीच भी है और हमारा सर्वेक्षण कहता है कि, यह इस वर्ग
के चार प्रतिशत मत को प्रभावित करने की स्थिति में है। जो कुल गिरने वाले मत प्रतिशत
के आधार पर एक प्रतिशत के करीब होता है। दूसरी तरफ जहां भी ब्राह्मण आबादी है उनकी
जमीन पर बटाई या लीज का काम करीब - करीब शेरशाह बादी के जिम्मे है।
अतः अगर दो मुसलमानों के बीच चुनाव की स्थिति बने
तो यह वर्ग अपनी प्राथमिकता में शेरशाहवादी को ही रखेगा, इस परिस्थिति में इनका वास्तविक
वोटिंग क्षमता बढ़ के करीब ग्यारह प्रतिशत हो जाती है। स्थिति ये है कि अन्य मुस्लिम
वर्ग जहां अपनी राजनैतिक हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं शेरशाह वादी अपनी राजनैतिक
पहचान की लड़ाई लड़ रहे हैं। अतः किसी नये राजनैतिक दल से इनका जुड़ना अपेक्षाकृत ज्यादे
आसान है। किसी भी नयी पार्टी के लिए शेरशाह वादी की राजनैतिक जमीन काफी उर्वर सिद्ध
हो सकती है।
आज की कड़ी में सिर्फ इतना ही। अगली कड़ी में हम
इस चर्चा को सीमांचल और ब्राह्मणों के संदर्भ में आगे बढ़ाएंगे।
विस्तार
भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी सच्चाइयों में से
एक यह है कि यहां की राजनीति समाजिक समीकरणों, खासकर जातीय गणित के आधार पर संचालित
होती है। राजनीतिक दल मंच पर भले ही विकास, रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे मुद्दों
की बात करें, लेकिन पर्दे के पीछे उनकी रणनीति जातीय आंकड़ों, सामाजिक पहुंच और जातिगत
वोटिंग पैटर्न की महीन गणनाओं पर टिकी होती है। सीमांचल जैसे अति-संवेदनशील और विविधतापूर्ण
क्षेत्र में यह समीकरण और भी अधिक पेचीदा हो जाते हैं।
आज हम चर्चा कर रहे हैं सीमांचल के मुस्लिम समाज
के एक खास वर्ग शेरशाहवादी की, जो अपनी संख्यात्मक मजबूती से कहीं अधिक
अपनी रणनीतिक स्थिति, सामाजिक पहुंच और राजनीतिक व्यवहार के लिए जाने जाते हैं।
संख्या और प्रभाव का संतुलन
शेरशाहवादी मुसलमानों की कुल जनसंख्या को लेकर
विभिन्न दावों के बीच आम सहमति 7% से 11% के बीच पाई जाती है। हमारे शोध और डाटा विश्लेषण
के अनुसार, इनकी औसत जनसंख्या कुल मतदाताओं का लगभग 8% है। यह संख्या अकेले
में कोई निर्णायक शक्ति नहीं लगती, लेकिन जब इनके सामाजिक संपर्क और प्रभाव क्षेत्र
को जोड़ा जाता है, तो यह वर्ग अपने आकार से कहीं अधिक असर डालने की क्षमता रखता है।
हिंदू अनुसूचित जातियों के बीच सामाजिक पहुंच
शेरशाहवादी समुदाय की आजीविका का एक प्रमुख स्रोत
श्रम, खेती-बाड़ी और बटाई आधारित कार्य रहा है। इन कार्यों के कारण इनकी नियमित सहभागिता
हिंदुओं की अनुसूचित जातियों और जनजातियों से बनी रहती है। इस निरंतर संवाद और सहजीवन
ने एक सामाजिक विश्वास का पुल खड़ा कर दिया है।
हमारे सर्वेक्षण में यह स्पष्ट हुआ कि यह
समुदाय अनुसूचित जाति के लगभग 4% मतदाताओं को प्रभावित करने की स्थिति में है, जो कि
कुल वोट प्रतिशत में लगभग 1% अतिरिक्त वोटिंग प्रभाव में परिवर्तित हो जाता है।
यह छोटी सी संख्या चुनावी संघर्ष में निर्णायक बन सकती है।
ब्राह्मण समुदाय से कार्य-आधारित जुड़ाव
सीमांचल में जहां भी ब्राह्मण आबादी है, वहां शेरशाहवादी
समुदाय का उनसे आर्थिक संबंध गहरा है। खेती के लिए ज़मीनों की लीज, बटाई या देखरेख
का काम प्रायः शेरशाहवादियों के जिम्मे होता है। इस पेशेवर रिश्ते ने दोनों समुदायों
के बीच एक व्यवहारिक विश्वास का निर्माण किया है।
यदि किसी विधानसभा या पंचायत क्षेत्र में दो मुस्लिम
प्रत्याशी आमने-सामने हों, तो ब्राह्मण वर्ग की प्रवृत्ति शेरशाहवादी प्रत्याशी को
वरीयता देने की रही है। यह स्थिति शेरशाहवादी समुदाय के वास्तविक वोटिंग प्रभाव को
11% तक पहुंचा सकती है। यानी जनसंख्या के मुकाबले इनका चुनावी प्रभाव अधिक है, जो इनकी
रणनीतिक भूमिका को और महत्वपूर्ण बना देता है।
राजनीतिक चेतना और मनोदशा
जहां सीमांचल के अन्य मुस्लिम समुदाय अपनी राजनीतिक
हिस्सेदारी बढ़ाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, वहीं शेरशाहवादी समुदाय की लड़ाई अपनी राजनीतिक
पहचान स्थापित करने की है। यही कारण है कि वे किसी भी राजनीतिक दल से जुड़ने के
लिए अपेक्षाकृत अधिक लचीले और उत्सुक नजर आते हैं।
इनकी यह मानसिकता नए राजनीतिक दलों के लिए एक सुनहरा
अवसर बन सकती है। एक ऐसा वर्ग जो न केवल संगठन का आधार बन सकता है, बल्कि जमीनी कार्यकर्ताओं
और प्रचारकों की एक ऊर्जावान टीम भी उपलब्ध करा सकता है।
नए राजनीतिक दलों के लिए संभावनाएं
आज जब परंपरागत दलों से मोहभंग की स्थिति उभर रही
है, और क्षेत्रीय राजनीति में नई विचारधाराओं की जमीन तैयार हो रही है, तब शेरशाहवादी
समुदाय जैसी जातियां किसी भी नवोदित राजनीतिक दल के लिए "उर्वर जमीन"
साबित हो सकती हैं।
इनका सामाजिक संपर्क, जातीय प्रभाव, विभिन्न समुदायों
में समावेश और राजनीतिक असंतोष, इन्हें किसी भी नयी विचारधारा से जोड़ने में सहायक
सिद्ध हो सकता है। खासकर उन पार्टियों के लिए जो सीमांचल को अपना मजबूत आधार बनाना
चाहती हैं।
चुनावी गणित में समीकरण-निर्माता
भले ही किसी क्षेत्र में शेरशाहवादी समुदाय अकेले
जीत नहीं दिला सकता, लेकिन यह समीकरणों को झुका सकता है। मान लीजिए किसी क्षेत्र में
मुस्लिम मतदाताओं का कुल प्रतिशत 40% है और उसमें शेरशाहवादी 8% हैं। यदि दो मुस्लिम
उम्मीदवार हों, तो शेरशाहवादी समुदाय का संगठित समर्थन किसी एक पक्ष को निर्णायक बढ़त
दिला सकता है।
इसके अलावा, हिंदू अनुसूचित जातियों और ब्राह्मणों
पर इनका सामाजिक प्रभाव अतिरिक्त लाभ के रूप में जुड़ता है। यही कारण है कि पुराने,
स्थापित दल भी इनकी उपेक्षा नहीं कर सकते, भले ही वे मंच से इनका नाम न लें।
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