पटना: लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास)
के प्रमुख चिराग पासवान एक बार फिर सुर्खियों में हैं। इस बार चर्चा का कारण है—क्या
वे केंद्रीय मंत्री की कुर्सी छोड़कर बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में उतरेंगे? बीते
साल 9 जून 2024 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट में शामिल हुए चिराग अब यह
संकेत दे रहे हैं कि वे बिहार की राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाना चाहते हैं। लेकिन
बड़ा सवाल है—क्या महज एक साल में ही केंद्र की सत्ता से उनका मोहभंग हो गया?
बिहार विधानसभा चुनाव 2020 के
पहले भी चिराग पासवान चर्चा में थे, जब उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ
अलग मोर्चा खोलते हुए एनडीए के भीतर रहते हुए जेडीयू प्रत्याशियों के खिलाफ उम्मीदवार
उतारे थे। इस कदम से जहां नीतीश की पार्टी को नुकसान हुआ, वहीं एनडीए सत्ता में लौटी,
लेकिन चिराग को इसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी। उनके चाचा पशुपति कुमार पारस ने केंद्रीय
मंत्रिमंडल में जगह पा ली और चिराग को दरकिनार कर दिया गया।
2024 में परिस्थितियां बदलीं।
बीजेपी से रिश्ते सुधरे, चिराग को लोकसभा चुनाव में 100% सफलता मिली और वे केंद्र में
मंत्री बने। लेकिन अब वे बिहार चुनाव लड़ने की इच्छा जता रहे हैं। अगर वह विधानसभा
चुनाव लड़ते हैं और विधायक बनते हैं, तो उन्हें केंद्रीय मंत्री पद छोड़ना होगा—जो
कि सुविधाओं और प्रभाव के लिहाज से बड़ा नुकसान साबित हो सकता है।
केंद्र बनाम राज्य: पद और प्रभाव
का गणित
केंद्रीय मंत्री के रूप में चिराग
पासवान का कार्यक्षेत्र पूरे देश तक फैला हुआ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कैबिनेट
का हिस्सा होना राजनीतिक कद और भविष्य की संभावनाओं के लिहाज से अत्यंत लाभकारी है।
वहीं, अगर वे बिहार में चुनाव जीतकर मंत्री बनते भी हैं, तो उनका कार्यक्षेत्र सीमित
हो जाएगा और पावर-सेंटर दिल्ली की बजाय पटना होगा।
सुविधाएं भी बहुत कुछ कहती हैं
सांसद और केंद्रीय मंत्री को
मिलने वाली सुविधाएं भी राज्य मंत्रियों की तुलना में कहीं अधिक हैं। एक सांसद को
1.24 लाख रुपये वेतन, 2500 रुपये प्रतिदिन भत्ता, असीमित हवाई/रेल यात्रा, फ्री सरकारी
बंगला, 50,000 यूनिट बिजली, लाखों फ्री कॉल्स, और परिवार के साथ यात्रा की भी सुविधा
मिलती है। वहीं, बिहार के मंत्रियों को 65 हजार रुपये वेतन, 70 हजार क्षेत्रीय भत्ता,
3500 रुपये दैनिक भत्ता और सीमित यात्रा सुविधाएं मिलती हैं।
राजनीतिक रणनीति या सियासी प्रयोग?
चिराग पासवान के ताजा बयान से
यह संकेत मिलता है कि वे “बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट” के अपने विज़न को साकार करने
के लिए जमीनी राजनीति में उतरना चाहते हैं। लेकिन यह फैसला आसान नहीं है। न सिर्फ उन्हें
केंद्रीय मंत्री पद छोड़ना होगा, बल्कि उन्हें बिहार में गठबंधन, सत्ता समीकरण और नीतीश
कुमार जैसे अनुभवी नेताओं से भी टक्कर लेनी होगी।
निष्कर्ष
चिराग पासवान की अगली चाल पर
सबकी नजरें टिकी हैं। क्या वे दिल्ली की चमक छोड़ पटना की धूप में उतरेंगे? या यह केवल
सियासी दबाव बनाने की रणनीति है—यह आने वाले महीनों में साफ होगा। फिलहाल, यह स्पष्ट
है कि चिराग की राजनीति फिर एक मोड़ पर खड़ी है।
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